कोरोना वैक्सीन तय करेगी 'दुनिया का किंग' 


वॉशिंगटन
कोरोना वायरस ने अब तक दुनिया में 2 लाख 71 हजार से ज्यादा जानें ले ली हैं। दुनियाभर के देश इसे रोकने के तरीके खोजने में जुटे हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि कोरोना के खिलाफ बड़े हथियार के तौर पर देखी जा रही इसकी वैक्सीन न सिर्फ कई और हजार लोगों की जिंदगियां नहीं बचाएगी बल्कि विश्व में किस देश का डंका बजेगा, यह भी तय करने का माद्दा रखेगी। जिस वायरस ने अमेरिका जैसी महाशक्ति को पस्त कर रखा है, उसके खिलाफ हथियार खोजने वाला देश अपने आप ही सुपरपावर की रेस में आगे निकल जाएगा। शायद यही वजह है कि न सिर्फ मेडिकल वर्ल्ड बल्कि मिलिट्री रीसर्च इंस्टिट्यूट्स भी युद्धस्तर पर इस खोज में जुटे हैं।

अपने लोगों को देंगे तरजीह
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 'ऑपरेशन वॉर्प स्पीड' चला रखा है जिसमें फार्मा कंपनियों के साथ सरकारी एजेंसियां और मिलिट्री शामिल हैं। चीन ने भी कुछ ऐसा ही कर रखा है जो पहले से ही अमेरिका के साथ व्यापार के साथ 5जी टेलिकम्यूनिकेशन नेटवर्क को लेकर स्पर्धा में है। भले ही बाकी देशों की तरह चीन और अमेरिका कोरोना से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग की बात करते हों, वैक्सीन की लड़ाई में राष्ट्रीय हित आगे रहेंगे, इतिहास इसका गवाह है। ऐसी सरकार, जो अपने देशवासियों को इस वायरस के खिलाफ तैयार कर सकेगी, उसे न सिर्फ आर्थिक फायदा होगा बल्कि तकनीक की दौड़ में भी उसका सिक्का चलेगा, दुनिया पर रसूख कायम होगा।


अमेरिका को यह डर
न्यूयॉर्क के काउंसिल ऑन फॉरन रिलेशन्स में साइबर सिक्यॉरिटी और ग्लोबल हेल्थ स्पेशलिस्ट डेविड फिडलर का मानना है कि जैसा तनाव अमेरिका और चीन के बीच है, हर चीज पर जियोपॉलिटिक्स का असर है। उन्होंने कहा कि अगर पेइचिंग ने पहले वैक्सीन तैयार कर ली तो अमेरिका की चिंता लाजमी है कि कहीं चीन वैक्सीन को राजनीतिक हथियार के रूप में न इस्तेमाल करे। WHO पर अमेरिका चीन को लेकर पक्षपात करने का आरोप लगाता रहा है। यहां तक कि उसकी फंडिंग भी रोक दी। चीन अब लॉकडाउन के बाद अपनी इकॉनमी को दोबारा शुरू करने की ओर बढ़ रहे है जबकि अमेरिका और यूरोप दोनों वायरस को फैलने से रोकने की चुनौती का सामना कर रहे हैं। इसके साथ ही इकॉनमी भी चरमराने लगी है। 
जाहिर नहीं हो रही प्रतिस्पर्धा
हालांकि, फिलहाल दोनों देश किसी प्रतिस्पर्धा की भावना को जाहिर नहीं कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने कुछ दिन पहले कहा था कि अमेरिका ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर वैक्सीन के प्रॉजेक्ट्स पर काम कर रहा था और उसका ध्यान इस बात पर नहीं है कि पहले कौन इसे तैयार कर लेता है। हेल्थ सेक्रटरी ऐलेक्स अजर ने बताया था कि अमेरिका को उम्मीद है कि वह दवा का उत्पादन खुद कर सकता है, वैक्सीन की खोज कोई भी करे। इसके बावजूद महामारी के शुरुआती दिनों में इसे लेकर राजनीति की झलकियों मिल चुकी थीं।


दिखने लगा है राजनीति का असर
इस पूरे मामले के दौरान बर्लिन की सरकार ने अमेरिका पर मॉडर्न पाइरेसी का आरोप लगाया था। उसका कहना था कि जर्मनी के लिए चीन ने जो प्रोटेक्शन किट भेजी थीं, वे अमेरिका ने छीन लीं। हालांकि, अमेरिका ने इस आरोप का खंडन किया था। यूरोप ने अपने फार्मा कंपनियों को विदेशियों के हाथों अधिग्रहीत होने से बचाने के लिए नए नियम लागू कर दिए। दूसरी ओर चीन से पश्चिम की सरकारें इस बात को लेकर नाराज हैं कि वह कुछ ही देशों की मदद कर रहा है और उसका प्रचार भी कर रहा है। साथ ही, वायरस को पहले काबू में करके अपने यहां सुपीरियर पॉलिटिकल सिस्टम होने का उदाहरण दे रहा है।


इतिहास कहता है कुछ और
वहीं, अमेरिका पहले अपने नागरिकों को बचाने के संकेत दे रहा है। वाइस प्रेजिडेंट माइक पेंस ने अमेरिका के वैक्सीन प्रोग्राम का लक्ष्य 'यूनाइटेड स्टेट्स के लोगों के लिए वैक्सीन विकसित करना' बताया। प्रशासन की कोशिश है कि जनवरी तक देश के ज्यादातर लोगों को देने के लिए करीब 30 करोड़ डोज तैयार की जाएं। इससे पहले 2009 में H1N1 फ्लू के दौरान भी सरकारों ने एक साथ काम करने का वादा किया था लेकिन जैसी ही वैक्सीन बनी, जो देश ज्यादा कीमत दे सकते थे उन्होंने अपने नागरिकों के लिए उसे खरीदकर जमा कर लिया।


कई देश हैं रेस में
चीन में 508 वॉलंटिअर्स चाइनीज अकैडमी ऑफ मिलिटरी मेडिकल साइंसेज की बनाई वैक्सीन के दूसरे चरण के ट्रायल के लिए तैयार हैं। इस महीने इस ट्रायल के नतीजे आ सकते हैं। रूस में 4 प्रॉजेक्ट्स चल रहे हैं। इनमें से एक नोवोसिबिर्स्क वेक्टर लैब में चल रहा है जहां एक समय में सोवियत जैविक हथियार बनाए जाते थे। नोवोसिबिर्स्क स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले सर्जी नेटेसोव के मुताबिक रूस की कोशिश है कि वह खुद अपने नागरिकों को सुरक्षित कर ले बिना प्रतिद्वंदियों पर निर्भर हुए। ब्रिटेन को भी ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में तैयार की जा रही वैक्सीन को लेकर उम्मीद बांधे है।


वैश्विक सहयोग का दावा और वादा
इस सबके बीच फ्रांस और जर्मनी काफी हद तक उस सहयोग के साथ काम कर रहे हैं जिसका दावा सभी देश कर रहे हैं। 4 मई को आयोजित एक वर्चुअल G-20 फंड रेजर में 8 बिलियन डॉलर जुटाए गए। बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने वादा किया है कि वह उत्पादन क्षमता बनाएगा ताकि कम से कम 7 वैक्सीन तैयार की जा सकें। इससे जल्द और ज्यादा मात्रा में वैक्सीन तैयार करने में मदद मिलेगी। जर्मन चांसल एंजेला मर्केल ने G-20 वीडियो कॉन्फ्रेंस में कहा था, 'यह महामारी वैश्विक चनौती है और इसलिए हम इससे सिर्फ वैश्विक स्तर पर ही उबर सकते हैं।'


यूरोपियन यूनियन की खामी का नुकसान
जर्मनी और फ्रांस को लेकर भी एक्सपर्ट्स का मानना है कि यूरोपियन यूनियन ने अपनी असफलता छिपाने के लिए अब इस तरह के बयानों का सहारा लेना सुरू किया है। इटली को पहले बचाया नहीं जा सका जिसकी वजह से चीन और रूस को मदद के बहाने आगे आने का मौका मिल गया। अमेरिका ने G-20 के वैक्सीन को लेकर रवैया से असहमति जता दी क्योंकि उसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल था।