भूखा-प्यासा इंसान, जलता आसमान, सवाल हर जुबान पर...कहां है तू भगवान? 150 किलोमीटर पैदल...सोचिए एक पल को, दिमाग सुन्न हो जाता है। छिल चुके छाले, गोद में बच्चों के सूखे चेहरे जो बहुत कुछ पूछना चाहते हैं पर शायद ही मां-बाप के पास कोई जवाब हो। कैसे बताया जाए कि मजदूर कितना मजबूर हो गया है। हर टूटते कदम के साथ भावनाएं उफन आती हैं। सैकड़ों किलोमीटर चलना है अभी, ऐसे में बच्चों से भी पिता कैसे कह दे कि थोड़ा पैदल चल लो...। बेबसी की ये 6 कहानियां आपको रुला देंगी।
कोई और विकल्प है क्या?'
चार लोगों का परिवार हर कदम के साथ एक सवाल मन ही मन दोहरा रहा है कि हम घर कब पहुंचेंगे। राम सिंह एक कबाड़ी के पास दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे। वह कुछ दिनों पहले राजस्थान से चले थे। राम कहते हैं, 'हम लोगों में से ज्यादातर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब से हैं। अब हम क्या कर सकते हैं जबकि पूरा देश लॉकडाउन कर दिया गया है। मेरे पास अब न तो नौकरी और न ही इतना पैसा कि परिवार को कुछ खिला सकूं। हमारा गांव राजस्थान में विठोड़ा कलां है, जो कि तकरीबन 400 किलोमीटर दूर है। मुझे पता है कि दो बच्चों के साथ इतनी लंबी यात्रा करना मुश्किल है। आप ही मुझे बताइए कि क्या कोई और विकल्प है।
'पैदल घर पहुंचने में अभी 18 दिन और...'
सुरेंद्रनगर जिले से रेखा अरवल ने पैदल रास्ता नापना शुरू किया था। वह अबतक 150 किलोमीटर की यात्रा तय कर चुकी हैं। रेखा के साथ उनका एक साल का बेटा मोहित भी है। मोहित अपनी मां की गोद में है। रविवार को जब मिरर की टीम उनसे मिली तो रेखा को 900 किलोमीटर की पैदल यात्रा तय करनी बाकी थी। दरअसल, कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों को देखते हुए परिवहन सेवाओं पर भी रोक लगा दी गई है। रेखा के पति हरदयाल (22) भी अपनी पत्नी के साथ ढेर सारा सामान लेकर पैदल सफर कर रहे हैं। ऐसे 10 लोग हैं जो एकसाथ यात्रा कर रहे हैं। ये सभी सुरेंद्रनगर में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे। श्रीराम अरवल कहते हैं, 'हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हमें ललितपुर पहुंचना है ताकि अपनी फसल काट सकें। हम तीन दिन पहले वहां से चले थे और हर रोज 50 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं। हमें झांसी पहुंचने में अभी 18 दिन और लगेंगे।'
माता-पिता को भेजते थे आधी रकम
24 वर्षीय अनुज तोमर को पिछले हफ्ते तक उम्मीद थी कि चीजें इतनी बुरी तो नहीं होंगी। हालांकि, स्थितियां अचानक से बदल गईं। अनुज ने एक साल पहले ही अहमदाबाद में एक मिठाई की दुकान में नौकरी करना शुरू किया था और वह अपनी 12 हजार रुपये की सैलरी में आधी रकम अपने बुजुर्ग माता-पिता को भेजते थे। लॉकडाउन के बाद उन्हें बड़ा झटका लगा। दुकान बंद हो गई, जिसकी वजह से उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। अब न तो घर जाने के लिए बस है न ही कोई ट्रेन। बचाए हुए पैसे भी तकरीबन खत्म हो चुके हैं। अनुज ने अपना सामान बटोरा और मध्य प्रदेश स्थित मोरेना के लिए पैदल ही निकल पड़े। दरअसल, अनुज का घर मोरेना में है। यह अहमदाबाद से तकरीबन एक हजार किलोमीटर दूर है।
'अभी 650 किलोमीटर हैं बाकी'
शंकर भाई अहमदाबाद में दिहाड़ी मजदूरी करते थे। वह पेशे से राजगीर हैं। शंकर रविवार को पैदल ही अपने गांव मकराना की ओर चल पड़े। उन्होंने बताया कि माता-पिता चाहते हैं कि मैं घर लौट आऊं। 20 किलोमीटर तक पैदल चलने के बाद वह और उनका सहयोगी चिलोडा पहुंचे। यहां से उन्हें रतनपुर तक के लिए लिफ्ट मिल गई। यहां से उन्हें उम्मीद है कि अब वह सोमवार शाम तक अपने घर पहुंच जाएंगे। शंकर को अभी 650 किलोमीटर की दूरी तय करनी है।
'काश! उस रोज मैं घर से ही न लौटता'
राजस्थान के जैसलमेर के रहने वाले नरेंद्र गढ़वी (52) अपने गांव से 20 मार्च को ही तो वापस लौटे थे। गढ़वी कार्पेंटर का काम करते हैं। अगले दिन दुकानें बंद हो गईं। वह कहते हैं, 'पहले तो जनता कर्फ्यू लगा दिया गया, फिर पूरी तरह से लॉकडाउन कर दिया गया। मुझे उस दिन घर से ही नहीं लौटना चाहिए था। अगर न लौटता तो शायद यहां न खड़ा होता। मैंने सुबह के वक्त भरूच से चलना शुरू किया था। मुझे नहीं पता कि अभी कितना और चलना है। इस उम्र में यह बहुत मुश्किल है। मुझे उम्मीद है कि सरकार बसों का इंतजाम करेगी।'
'हमारा 6 साल का बेटा घर पर इंतजार कर रहा है'
सोमभाई ताला और उनकी पत्नी वर्षा काठवाड़ा के नजदीक गांव में बनाए गए प्रवासी मजदूर वाले अस्थायी कैंप से चोरी-छिपे निकल आए हैं। इस कैंप में अलग-अलग राज्यों के प्रवासी मजदूरों को रखा गया था। सोमभाई कहते हैं, 'वहां से हमें निकलने नहीं दिया जा रहा था। कह रहे थे कि यहीं पर खाना और दवाइयां मिलेंगी।' उनसे जब पूछा गया कि आप लोग वहां से भाग क्यों निकले तो इसके जवाब में वर्षा कहती हैं, 'राजस्थान में मेरा छह साल का बेटा मेरे परिवारवालों के साथ है। वह हमारा इंतजार कर रहा है।'