चिंटू का बर्थडे मूवी रिव्यू



कलाकारविनय पाठक,तिलोतमा शोम,सीमा पहवा,बिशा चतुर्वेदी,वेदांत छिब्बर
निर्देशक दिवांशु कुमार और सत्याशु सिंह
कभी-कभी कुछ फिल्में बिजनस करने के इरादे से नहीं बनाई जाती हैं। इन फिल्मों की कहानी, ऐक्टिंग और ट्रीटमेंट को देखकर आपको अच्छा महसूस होता है। कुछ ऐसा ही है हालिया रिलीज फिल्म 'चिंटू का बर्थडे' के साथ। इस फिल्म को एआईबी वाले तन्मय भट्ट, गुरसिमर खांबा, रोहन जोशी और आशीष शाक्य ने प्रड्यूस किया है। यह फिल्म पिछले काफी समय से तैयार थी लेकिन अब रिलीज हुई है।
कहानी: फिल्म की कहानी साल 2004 से शुरू होती है जबकि इराक में अमेरिकी फौजों को एक साल पूरा हो गया था और सद्दाम हुसैन पर मुकदमा चल रहा था। बगदाद में बिहार के रहने वाले मदन तिवारी (विनय पाठक) अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। वैसे तो भारत सरकार ने सभी भारतीयों को इराक से निकाल लिया था लेकिन मदन फर्जी दस्तावेजों और नेपाल के पासपोर्ट पर इराक पहुंचे थे और वहीं फंसे रह गए। मदन के बेटे चिंटू (वेदांत छिब्बर) का छठवां जन्मदिन है और इस मौके पर पार्टी का आयोजन किया जाता है। इसी बीच मदन के घर के पास जोरदार धमाका होता है और वहां 2 अमेरिकी सैनिक आ जाते हैं। मदन का मकान मालिक एक शिया ऐक्टिविस्ट है जिसे अमेरिकी उग्रवादी समझते हैं। इसके बाद अमेरिकी सैनिक मदन के परिवार को बंधक बना लेते हैं। फिर चिंटू के बर्थडे का क्या होगा जो पिछले साल भी नहीं मनाया गया था? इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।


रिव्यू: यह कहना गलत नहीं होगा कि फिल्म की पूरी कास्ट ने चाहे वह विनय पाठक हों या 6 साल के चिंटू के रोल में वेदांत, सभी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। विनय पाठक, तिलोतमा शोम और सीमा पहवा हमेशा की तरह अपने बेस्ट पर हैं। बिशा चतुर्वेदी मदन की बेटी लक्ष्मी के रोल में उम्र से ज्यादा मैच्योर लगी हैं जबकि चिंटू के रोल में वेदांत बेहद क्यूट लग रहे हैं। फिल्म के लिए दोनों डायरेक्टर्स की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इस फिल्म में राजनीति को बिल्कुल भी शामिल नहीं होने दिया और इसे एक हिंसाग्रस्त देश में वहां के लोगों और सैनिकों की मानवीय संवेदनाओं तक ही सीमित रखा है। फिल्म में भारत जाने की छटपटाहट में जूझता मदन तिवारी का परिवार और इराक में हिंसा से परेशान अमेरिकी सैनिकों का अवसाद आपको कहानी के किसी भी कैरक्टर के लिए नेगेटिव फीलिंग आने ही नहीं देता है।


फिल्म की गति थोड़ी धीमी है तो यह कहीं-कहीं आपको कुछ बोझिल लग सकती है लेकिन चूंकि फिल्म छोटी है तो इसे मैनेज किया जा सकता है। फिल्म में हिंदी, इंग्लिश और अरबी में डायलॉग्स हैं तो सबटाइटल नहीं पढ़ने वालों को थोड़ी दिक्कत हो सकती है। किसी राजनीतिक चश्मे को पहनकर फिल्म देखना चाहते हों तो बेहतर है कि इसे न देखें।